सदियों से हमारे भारत देश को राजपूतों की शान माना जाता है। हमारे देश की धरती में हीरों और लालों से भरी पड़ी है, जिसमें शूरवीर योद्धा की कोई कमी नहीं। भारत देश के महान योद्धाओं में सबसे प्रतिष्ठित नाम माना जाता है, महाराणा संग्राम सिंह जिन्हें राणा सांगा के नाम से भी संबोधित किया जाता है। मुगल साम्राज्य के आगमन से पहले मेवाड़ के शासक साहसी एवं पराक्रमी वीर पुरुष राणा सांगा ने अपना पूरा जीवन अपनी मातृभूमि के लिए न्योछावर कर दिया।
अपने देश की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक लड़ने वाले पराक्रमी महापुरुष थे राणा सांगा! अपने देश और मेवाड़ के लिए स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रतीक माने जाने वाले महापुरुष थे। राणा सांगा का जीवन संघर्ष के बाबत में अनोखा इतिहास प्रदान करता है।
महाराणा सांगा का जन्म 12 अप्रैल 1482 भारत देश में स्थित राजस्थान के मेवाड़ नामक गांव में हुआ था। उनके पिताजी का नाम राणा रायमल सिंह था। बचपन से ही राणा सांगा का स्वभाव साहसपूर्ण और पराक्रमी वृत्ति का था। वह बचपन से ही घुड़सवारी, तीरंदाज़ी, शस्त्रकला में निपुण थे। कठिन परिस्थिति और संघर्षपूर्ण जीवन से गुजरे राणा सांगा ने कम उम्र में ही अपनी बहादुरी का परिचय देना शुरू कर दिया था और मेवाड़ का साम्राज्य स्थापित करने का नेतृत्व करने लगे थे।
राणा सांगा जी को परंपरागत गुरुकुल प्रणाली से शिक्षा प्राप्त करवाई गई थी। उनके शिक्षक गुरुजियों ने उन्हें इतिहास, रणनीति, राजनीति और धार्मिक शास्त्रों का ज्ञान संपूर्ण तत्वज्ञान के माध्यम से करवाया था। उन्हें युद्ध कौशल, प्रशासनिक शिक्षा एवं समाज कल्याण से संबंधित शिक्षा का ज्ञान करवाया गया था। उसी कारण से वह केवल एक योद्धा ही नहीं बल्कि एक अच्छे विद्वान और शासक भी थे। उनके शिक्षण और प्रशिक्षण के कारण वह युद्धकला में पारंगत थे, उसके अलावा राज्य का संचालन और राजपूत एकता को स्थापित करके चलते थे।
भारत के छोटे-मोटे राजा आपसी मतभेद रखते थे। लेकिन राणा सांगा जी ने उनको एकजुट करके मजबूत सेना तैयार की और मुगल सम्राट के सामने चुनौती देकर युद्ध स्वीकार किया।
दिल्ली के शासकों और विदेशी सम्राट बाबर को चुनौती देकर राणा सांगा ने मेवाड़ का नाम रोशन किया और राजपूतों के लिए इतिहास रच दिया। राजपूती शौर्य के लिए प्रतिष्ठित। राणा सांगा की वीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह शरीर पर 80 घाव होने के बावजूद युद्ध मैदान को छोड़कर नहीं गए थे।
भारत के इतिहास में खानवा का युद्ध 1527 ई. को एक विदेशी शासक बाबर के साथ हुआ था। यह युद्ध राजपूती योद्धा महाराणा सांगा जिनका नाम संग्राम सिंह था, जो मेवाड़ के रहने वाले थे। उन्होंने बाबर को चुनौती दी थी और यह युद्ध एक निर्णायक युद्ध था।
1526 में बाबर ने इब्राहीम के साथ युद्ध करके पानीपत की पहली लड़ाई में ही जीत हासिल की थी और दिल्ली की गद्दी प्राप्त की थी। लेकिन राजपूती सेना के रहते बाबर अपनी पकड़ दिल्ली पर मजबूत नहीं कर पाया था। क्योंकि राणा सांगा के नेतृत्व में मेवाड़ की समग्र राजपूती सेना को महाराणा सांगा ने एकजुट करके अपने साथ युद्ध के लिए तैयार किया हुआ था, जो राणा सांगा के साथ मिलकर बाबर का विरोध कर रहे थे। राणा सांगा चाहते थे कि दिल्ली के ऊपर राजपूतों का शासन हो।
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राणा सांगा युद्ध के मैदान में गंभीर रूप से घायल हो गए थे, उनके शरीर पर 80 घाव हो गए थे। इसके बावजूद भी उन्होंने युद्धभूमि से कायर की तरह हार स्वीकार नहीं की और अंतिम सांस तक लड़ते रहे। सबसे खास बात यह है कि दुश्मन के मुंह पर भी राणा सांगा की प्रशंसा थी, क्योंकि बाबर ने आज तक ऐसा योद्धा नहीं देखा था। भारत के इतिहास के पन्नों में बड़े गर्व के साथ महान योद्धा के रूप में बलिदान के प्रतीक साहसी राजा राणा सांगा का नाम लिया जाता है।
1. बलिदान की अनोखी मिसाल – राणा सांगा का संपूर्ण जीवन अपने देश, अपने धर्म के लिए कुर्बान था। उन्होंने हमें यह सीख दी थी कि हमें अपने देश, मातृभूमि, धर्म और साम्राज्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ जाए तो भी त्याग की भावना रखनी चाहिए और युद्ध के मैदान में पीछे हट नहीं करनी चाहिए।
2. आत्मसम्मान और स्वाभिमान के लिए संघर्ष – राणा सांगा ने हमें आत्मसम्मान और स्वाभिमान के लिए लड़ने की सीख प्रदान की। उन्होंने विदेशी आक्रमणकारी के सामने हार स्वीकार नहीं की थी, उनको चुनौती दी थी।
3. कर्तव्य और प्रजा हित की भावना – राणा सांगा ने अपनी परवाह न करके प्रजा के हित के बारे में सोचने की भावना रखी। उनके लिए समाज सेवा सर्वोपरि थी। उनके मुताबिक सच्चा नेता वही है जो प्रजा को प्राथमिकता दे।
4. कठिन परिस्थितियों में भी साहस को बनाए रखना – राणा सांगा अनेकों बार घायल होने के बावजूद भी हार नहीं मानी और अंतिम सांस तक लड़ते रहे।
5. एकता का संदेश – राणा सांगा ने राजपूती योद्धाओं को एकता में जोड़ा और बिखरे हुए साम्राज्य को पुनः स्थापित किया। सब राजाओं को एकजुट करके हमें यह संदेश दिया कि एकता में वह शक्ति है जिससे बड़े से बड़ी चुनौती को भी स्वीकार किया जा सकता है और जीत हासिल की जा सकती है।
हमारे पवित्र शास्त्रों में यह प्रमाण है कि जो व्यक्ति शूरवीर होता है, वह न तो पीठ पीछे वार करता है और न ही मैदान छोड़कर भागता है अर्थात युद्ध के मैदान में पीछे हट नहीं करता और अपने अंतिम सांस तक लड़ता है।
शूरवीर के लिए उनके माता-पिता की लाज का सवाल होता है और जो कायर होते हैं, वह लोग डर के मारे मैदान छोड़कर भागते हैं अर्थात अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। ऐसे लोग युद्ध के मैदान में टिक नहीं पाते।
ऐसे ही संत गरीबदास जी महाराज जी ने भी अपनी वाणी में बताया है कि भक्ति मार्ग में वही व्यक्ति टिकते हैं जो सच्चे सतगुरु की शरण में होकर सच्ची भक्ति करते हैं और जो झूठे गुरु से दीक्षित होते हैं, वे व्यक्ति ज्यादा दिन नहीं टिक पाते। भक्ति मार्ग भी खांडेवाली तलवार की धार पर चलने के बराबर होता है।
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