क्या आपने कभी सोचा है कि एक कानूनी फैसला कैसे किसी बड़े सामाजिक या राजनीतिक घटनाक्रम को प्रभावित कर सकता है? दिल्ली दंगे 2020 एक ऐसा ही घटनाक्रम था, जिसकी कानूनी लड़ाई आज भी जारी है। हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत ने जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद, शरजील इमाम और 7 अन्य आरोपियों की जमानत याचिका को खारिज कर दिया है। यह फैसला गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत दर्ज मामले में आया है, जिसने एक बार फिर इस कठोर कानून पर बहस छेड़ दी है।
यह सिर्फ एक कानूनी खबर नहीं है, बल्कि यह UAPA जैसे कानूनों के तहत न्यायपालिका की भूमिका और ऐसे मामलों में जमानत के जटिल प्रावधानों को भी उजागर करती है। यह लेख आपको इस पूरे मामले की गहराई में ले जाएगा, कोर्ट के फैसले के कारणों, UAPA की बारीकियों और इसके दूरगामी प्रभावों को विस्तार से समझाएगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति शैलेंद्र कौर की खंडपीठ ने 9 जुलाई 2025 को मामले की सुनवाई पूरी करने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। मंगलवार, 2 सितंबर 2025 को, इस खंडपीठ ने आखिरकार अपना फैसला सुनाते हुए उमर खालिद और शरजील इमाम सहित कुल 9 आरोपियों की जमानत याचिकाएं खारिज कर दीं। इन सभी पर दिल्ली दंगों के पीछे एक बड़ी साजिश रचने का आरोप है।
इस फैसले के साथ ही, इन आरोपियों को जमानत मिलने की उम्मीदों को बड़ा झटका लगा है, जो पिछले कई सालों से जेल में हैं। इस मामले में दिल्ली पुलिस का आरोप है कि ये दंगे अचानक नहीं हुए थे, बल्कि इनके पीछे एक सोची-समझी और सुनियोजित साजिश थी, जिसमें ये आरोपी शामिल थे। अदालत ने इन आरोपों को प्रथम दृष्टया (prima facie) सत्य मानते हुए जमानत देने से इनकार किया।
UAPA कानून और जमानत के कठोर प्रावधान
UAPA, यानी Unlawful Activities (Prevention) Act, एक ऐसा कानून है जो आतंकवाद और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से निपटने के लिए बनाया गया है। इस कानून की धारा 43डी(5) के तहत जमानत मिलना बेहद मुश्किल होता है।
- प्रथम दृष्टया सबूत (Prima Facie Evidence): यह कानून कहता है कि यदि अदालत को पुलिस द्वारा प्रस्तुत सबूतों के आधार पर यह मानने का “उचित आधार” है कि आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं, तो आरोपी को जमानत नहीं दी जाएगी। यह प्रावधान सामान्य आपराधिक मामलों से अलग है, जहां ‘जमानत एक नियम है और जेल एक अपवाद’ होता है। UAPA के तहत, यह सिद्धांत उलट जाता है।
- न्यायिक विवेकाधिकार पर सीमाएं: UAPA की धारा 43डी(5) न्यायाधीश के विवेक को सीमित करती है। उन्हें सबूतों की गहराई से जांच करने के बजाय, यह देखना होता है कि क्या आरोप पहली नजर में सही प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि अदालत ने इस मामले में जमानत याचिका खारिज की।
- लंबे समय तक हिरासत: UAPA के तहत, आरोपी को बिना आरोप तय किए भी लंबे समय तक हिरासत में रखा जा सकता है, जिससे मुकदमे में देरी होती है। उमर खालिद को सितंबर 2020 में गिरफ्तार किया गया था और वे तब से जेल में हैं, जबकि उनके खिलाफ अभी तक आरोप तय नहीं हुए हैं। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, से संबंधित बहस को जन्म देता है।
अदालत के फैसले के प्रमुख कारण
अदालत ने अपने फैसले में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं का उल्लेख किया:
- षड्यंत्र का आरोप: अदालत ने माना कि दिल्ली पुलिस द्वारा प्रस्तुत सबूत, जैसे कि वॉट्सऐप चैट्स, मीटिंग्स और भड़काऊ भाषण, प्रथम दृष्टया एक आपराधिक षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं। पुलिस ने आरोप लगाया है कि उमर खालिद ने 8 जनवरी, 2020 को शाहीन बाग में एक गुप्त बैठक में दंगे की योजना बनाई थी।
- हिंसा भड़काने के सबूत: अदालत ने पाया कि कुछ आरोपियों के भाषण और गतिविधियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा भड़काने वाली थीं। उदाहरण के लिए, दिल्ली पुलिस ने आरोप लगाया था कि शरजील इमाम के भाषणों का उद्देश्य “चिकन नेक” (उत्तर-पूर्वी राज्यों को भारत से जोड़ने वाला सिलीगुड़ी कॉरिडोर) को अवरुद्ध करना था, जो राष्ट्र की संप्रभुता के लिए खतरा है।
- यूएपीए के कठोर मानक: अदालत ने स्पष्ट किया कि UAPA के तहत जमानत के लिए “प्रथम दृष्टया” सबूतों की पर्याप्तता ही काफी है, और इस मामले में पुलिस के पास ऐसे सबूत मौजूद हैं। अदालत ने कहा कि “हमें यह नहीं देखना है कि आरोप साबित होंगे या नहीं, बल्कि यह देखना है कि क्या आरोप प्रथम दृष्टया सही हैं।”
यह फैसला इस बात को दर्शाता है कि UAPA के तहत आरोपी को खुद को निर्दोष साबित करना कितना कठिन है, खासकर जब जांच एजेंसियां पर्याप्त सबूत पेश कर चुकी हों।
अन्य आरोपियों की स्थिति और आगे की राह
उमर खालिद और शरजील इमाम के अलावा, जिन अन्य आरोपियों की जमानत याचिकाएं खारिज की गई हैं, उनमें मोहम्मद सलीम खान, शिफा-उर-रहमान, अतहर खान, मीरान हैदर, अब्दुल खालिद सैफी, गुलफिशा फातिमा और तस्लीम अहमद शामिल हैं। इन सभी पर दिल्ली दंगों की साजिश में शामिल होने का आरोप है।
अदालत के इस फैसले के बाद, इन सभी आरोपियों के पास अब सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का विकल्प है। उनके वकील ने पहले ही संकेत दिया है कि वे दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। यह कानूनी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।
सांख्यिकीय जानकारी: 2020 के दिल्ली दंगों में 53 से अधिक लोगों की मौत हुई थी और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। इस घटना ने देश की राजधानी में सांप्रदायिक तनाव को चरम पर पहुंचा दिया था। इस संदर्भ में, यह मामला न केवल कानूनी, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
निष्कर्ष और आगे की सोच
दिल्ली दंगे: उमर खालिद, शरजील इमाम और 7 अन्य की UAPA मामले में जमानत याचिका खारिज होने का फैसला एक जटिल कानूनी और राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाता है। यह फैसला UAPA जैसे कठोर कानूनों की संवैधानिकता और न्यायपालिका की भूमिका पर महत्वपूर्ण सवाल उठाता है। यह भी दिखाता है कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में जमानत प्राप्त करना कितना कठिन है।
हालांकि अदालत ने अपना फैसला सबूतों के आधार पर सुनाया है, लेकिन यह मामला अभी भी कानूनी और सार्वजनिक बहस का विषय बना हुआ है। यह देखना दिलचस्प होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में क्या रुख अपनाता है। क्या वह उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखेगा या UAPA के तहत जमानत के प्रावधानों पर नई रोशनी डालेगा?
आपका क्या सोचना है?
दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले पर आपकी क्या राय है? क्या आपको लगता है कि UAPA जैसे कानूनों में सुधार की आवश्यकता है? हमें कमेंट सेक्शन में अपनी राय बताएं। इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा में शामिल हों और इस लेख को अपने दोस्तों और परिवार के साथ साझा करें ताकि वे भी इस मामले की गहराई को समझ सकें।

















