Janaki vs State of kerala | जानकी बनाम केरल राज्य: न्याय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई

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Janaki vs State of kerala: हाल ही में, एक मलयालम फिल्म “जानकी बनाम केरल राज्य” (Janaki v/s State of Kerala) ने सिर्फ सिनेमाघरों में ही नहीं, बल्कि भारतीय न्यायपालिका के गलियारों में भी हलचल मचा दी है। यह फिल्म एक काल्पनिक बलात्कार पीड़िता जानकी विद्याधरन की कहानी है, जो न्याय के लिए केरल राज्य के खिलाफ लड़ती है। हालांकि, यह फिल्म अपनी कहानी के लिए उतनी चर्चा में नहीं आई, जितनी इसके शीर्षक और मुख्य किरदार के नाम को लेकर हुए विवाद के लिए। इस विवाद ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कला पर सेंसरशिप की सीमाओं पर कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए।

Janaki vs State of kerala: क्या है पूरा विवाद?

यह विवाद तब शुरू हुआ जब सेंसर बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (CBFC) ने फिल्म के निर्माताओं से इसके शीर्षक और मुख्य किरदार का नाम बदलने को कहा। CBFC की आपत्ति यह थी कि “जानकी” नाम, जो देवी सीता का दूसरा नाम है, एक यौन उत्पीड़न पीड़िता के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया जाना चाहिए, क्योंकि इससे धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। इस आपत्ति के बाद फिल्म के निर्माताओं ने केरल उच्च न्यायालय का रुख किया।

केरल उच्च न्यायालय में इस मामले पर हुई सुनवाई ने एक मिसाल कायम की। न्यायमूर्ति एन. नागरेश ने CBFC के तर्क पर कड़ी आपत्ति जताई और सवाल किया कि क्या सेंसर बोर्ड के पास किसी फिल्म के पात्रों के नाम तय करने का अधिकार है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में 80% से अधिक लोगों के नाम किसी न किसी धार्मिक पहचान पर आधारित होते हैं, तो क्या सभी पर आपत्ति उठाई जाएगी? कोर्ट ने CBFC से इस आपत्ति पर एक विस्तृत और स्पष्टीकरण देने को कहा। 

इस कानूनी लड़ाई के बाद, अंततः सेंसर बोर्ड ने अपनी आपत्ति वापस ले ली और फिल्म को सिर्फ दो मामूली बदलावों के साथ मंजूरी दी, जिसमें शीर्षक में ‘V’ जोड़ना और कुछ धार्मिक संदर्भों को म्यूट करना शामिल था।

यह केस सिर्फ एक फिल्म का नहीं, बल्कि एक सिद्धांत का है

जानकी बनाम केरल राज्य (Janaki v/s State of Kerala) का मामला सिर्फ एक फिल्म की रिलीज को लेकर नहीं था, बल्कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से जुड़ा था, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में निहित है। यह केस इस बात का उदाहरण है कि कैसे रचनात्मक कला को संकीर्ण विचारों और सेंसरशिप से बचाने की आवश्यकता है।

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इस मामले में अदालत का रुख बहुत स्पष्ट था: कलाकारों को अपने पात्रों के नाम चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। यदि धार्मिक भावनाओं को आहत करने का तर्क हर नाम पर लागू किया जाएगा, तो यह कलात्मक अभिव्यक्ति को पूरी तरह से बाधित कर देगा। अदालत ने यह भी कहा कि “जानकी” नाम का इस्तेमाल एक मजबूत और न्याय के लिए लड़ने वाली महिला के रूप में किया गया है, न कि किसी नकारात्मक संदर्भ में।

प्रमुख बातें:

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: यह मामला कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्थापित करता है।
  • सेंसरशिप की सीमाएं: अदालत ने स्पष्ट किया कि सेंसर बोर्ड का काम अनावश्यक रूप से कलात्मक स्वतंत्रता पर रोक लगाना नहीं है।
  • न्यायपालिका की भूमिका: यह दिखाता है कि कैसे न्यायपालिका ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की है।
  • उदाहरण: न्यायमूर्ति एन. नागरेश ने अपने फैसले में पुराने बॉलीवुड फ़िल्मों जैसे “सीता और गीता” (Sita Aur Geeta) का उदाहरण दिया, जहां देवी-देवताओं से जुड़े नाम सामान्य पात्रों के लिए इस्तेमाल किए गए थे।

कानूनी पहलू और उसका महत्व

यह केस कानून के छात्रों और आम नागरिकों दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। यह हमें सिखाता है कि हमारे संवैधानिक अधिकार कितने शक्तिशाली हैं और न्यायपालिका कैसे उनकी रक्षा करती है। यह मामला दर्शाता है कि रचनात्मक कार्यों को सेंसर करने के लिए “धार्मिक भावनाएं आहत होने” का तर्क अक्सर अनुचित तरीके से इस्तेमाल किया जाता है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, 2018 और 2022 के बीच, CBFC ने 400 से अधिक फिल्मों में बड़ी संख्या में कट और बदलाव सुझाए, जिनमें से कई धार्मिक या राजनीतिक कारणों से थे। जानकी बनाम केरल राज्य (Janaki v/s State of Kerala) जैसे मामले इन आंकड़ों को चुनौती देते हैं और यह सुनिश्चित करने में मदद करते हैं कि भविष्य में ऐसे तर्क आसानी से स्वीकार न किए जाएं।

आगे की राह:

  1. कलाकारों और निर्माताओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना चाहिए।
  2. सेंसरशिप कानूनों की समीक्षा और उन्हें अधिक स्पष्ट बनाने की आवश्यकता है।
  3. न्यायपालिका को लगातार मौलिक अधिकारों की रक्षा में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

यह मामला न केवल भारतीय सिनेमा के लिए, बल्कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक मील का पत्थर है।

निष्कर्ष: न्याय और कला का संगम

जानकी बनाम केरल राज्य (Janaki v/s State of Kerala) का मामला दिखाता है कि कैसे कला और कानून एक-दूसरे के साथ मिलकर समाज में बदलाव ला सकते हैं। इस फिल्म ने एक महत्वपूर्ण कानूनी बहस को जन्म दिया और यह साबित कर दिया कि एक काल्पनिक कहानी भी वास्तविक दुनिया में एक बड़ा प्रभाव डाल सकती है। यह मामला उन सभी कलाकारों और रचनाकारों के लिए एक प्रेरणा है जो अपनी कला के माध्यम से समाज को आईना दिखाना चाहते हैं।

हमें उम्मीद है कि यह मामला एक ऐसे भविष्य की ओर ले जाएगा जहां कला को अनावश्यक सेंसरशिप से मुक्त रखा जाएगा और उसे अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने की अनुमति दी जाएगी।

आपकी राय क्या है? क्या आपको लगता है कि सेंसर बोर्ड के पास इस तरह की आपत्तियां उठाने का अधिकार होना चाहिए? नीचे टिप्पणी करके हमें बताएं।

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