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Justice Prashant Kumar Case | जस्टिस प्रशांत कुमार विवाद: SC के आदेश पर HC का विरोध

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Justice Prashant Kumar case in hindi

Justice Prashant Kumar Case: हाल ही में, इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच एक अभूतपूर्व गतिरोध देखने को मिला है। यह विवाद जस्टिस प्रशांत कुमार से जुड़े एक मामले से शुरू हुआ, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने एक कड़ा आदेश पारित किया।

इस आदेश के बाद, इलाहाबाद हाईकोर्ट के कम से कम 13 न्यायाधीशों ने चीफ जस्टिस से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते हुए एक फुल कोर्ट मीटिंग बुलाने की अपील की है। यह घटना भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जो न्यायिक स्वतंत्रता और पदानुक्रम पर गंभीर सवाल खड़े करती है।

Justice Prashant Kumar Case: क्या है जस्टिस प्रशांत कुमार का मामला?

यह पूरा विवाद एक व्यावसायिक लेन-देन से जुड़ा है। एक मामले में, जस्टिस प्रशांत कुमार की एकल पीठ ने एक दीवानी (सिविल) विवाद में आपराधिक कार्यवाही को जारी रखने की अनुमति दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को “न्याय का मज़ाक” बताते हुए रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस जे. बी. पारडीवाला और जस्टिस आर. महादेवन शामिल थे, ने इस बात पर कड़ी आपत्ति जताई कि कैसे एक सिविल मामले को आपराधिक मामले में बदला गया।

सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ जस्टिस कुमार के आदेश को पलटा, बल्कि एक असाधारण कदम उठाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश दिया कि:

  • जस्टिस प्रशांत कुमार से सभी आपराधिक मामले वापस लिए जाएं।
  • उन्हें किसी वरिष्ठ जज के साथ डिवीजन बेंच में बैठने का निर्देश दिया जाए।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला जस्टिस कुमार की न्यायिक क्षमता पर सीधा सवाल था, जिसने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों को नाराज़ कर दिया।

क्यों विरोध कर रहे हैं हाईकोर्ट के जज?

जस्टिस प्रशांत कुमार (Justice Prashant Kumar Case) के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने हाईकोर्ट के जजों में असंतोष पैदा कर दिया है। उनका मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की न्यायिक स्वतंत्रता और अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया है। उनका तर्क है कि एक हाईकोर्ट के जज के काम पर इस तरह की टिप्पणी और उन्हें विशेष तरह के मामलों की सुनवाई से रोकना, न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के लिए ठीक नहीं है।

जजों की मुख्य आपत्तियां

  • न्यायिक स्वतंत्रता पर हमला: सुप्रीम कोर्ट का आदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की स्वायत्तता को कम करता है।
  • पदानुक्रम का उल्लंघन: न्यायाधीशों का मानना है कि भले ही सुप्रीम कोर्ट अपीलीय अदालत है, लेकिन वह किसी हाईकोर्ट के जज के रोस्टर या कार्यभार को सीधे तौर पर नियंत्रित नहीं कर सकता।
  • असंतोषजनक प्रक्रिया: इस तरह का आदेश देने से पहले, हाईकोर्ट के जजों का मानना है कि उन्हें इस पर अपनी राय रखने का मौका दिया जाना चाहिए था।

इस विरोध को दर्शाते हुए, 13 न्यायाधीशों ने एक पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने मुख्य न्यायाधीश से फुल कोर्ट मीटिंग बुलाने की मांग की है। यह मीटिंग एक ऐसा मंच है जहां 

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हाईकोर्ट के सभी जज मिलकर इस संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा कर सकते हैं और एक साझा रुख अपना सकते हैं। यह कदम यह दिखाता है कि इस मुद्दे की गंभीरता कितनी अधिक है।

Justice Prashant Kumar Case को लेकर क्या कहते हैं कानून विशेषज्ञ?

कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह मामला न्यायपालिका के भीतर एक दुर्लभ और महत्वपूर्ण टकराव है। संविधान विशेषज्ञ और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि “किसी भी अदालत को दूसरे के क्षेत्राधिकार में इस तरह से हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।” यह स्थिति न्यायपालिका के आंतरिक कामकाज में एक नई बहस छेड़ सकती है।

अब आगे क्या?

इस घटना ने पूरे देश में न्यायपालिका के कामकाज पर ध्यान खींचा है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इस अपील पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं और क्या फुल कोर्ट मीटिंग बुलाई जाती है। यह मामला न केवल जस्टिस प्रशांत कुमार के भविष्य को प्रभावित करेगा, बल्कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच संबंधों की सीमाओं को भी फिर से परिभाषित कर सकता है।

निष्कर्ष

जस्टिस प्रशांत कुमार मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों का यह विरोध न्यायपालिका के भीतर की जटिलताओं को उजागर करता है। यह न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता पर जोर देता है। क्या यह टकराव भारतीय न्यायपालिका के लिए एक नया रास्ता खोलेगा, या यह एक चेतावनी बन कर रह जाएगा? हमें अपनी न्याय व्यवस्था पर भरोसा बनाए रखना चाहिए और इन महत्वपूर्ण घटनाओं पर नज़र रखनी चाहिए।

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